भारत में परिवर्तन का एक नया दौर चल रहा है। परिवर्तन के इस दौर में जीतते हुए
भारत, विश्व को दिशा देने वाले भारत की छवि मुखरित हो रही है। भारतीय राजनय
भी नई करवट ले रहा है और सांप्रतिक सभ्यता में अपना विशिष्ट योगदान
प्रस्तुत कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र सभा में पहली बार महात्मा गांधी और
दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि समन्वित होकर सामंजस्यपूर्ण, सह अस्तित्व और
संपोष्य विकास की विश्व सभ्यता दृष्टि बना सकती है, यह बात उभरकर सामने आयी
है। इस विशेष परिस्थिति में जब हम आजादी के अमृत महोत्सव का संदर्भ लेते हैं
तो आजाद भारत के लिए सामाजिक परिवर्तन, उचित अर्थनीति, राजनीति तथा शिक्षा की
कल्पना करने वाले दो महान व्यक्तित्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण और राष्ट्र
ऋषि नानाजी देशमुख एक साथ उभरकर सामने आते हैं। दोनों के बीच अद्भुत समानता
है। पहली समानता तो यह कि दोनों का जन्मदिन 11 अक्तूबर को पड़ता है। इन
दोनों ने 1975 में भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई साथ- साथ लड़ी थी, एक का
नेतृत्व था तो दूसरे का संगठन कौशल। दोनों महनीय नायकों में एक और विशेष
समानता यह है कि दोनों ने राजनीति में स्थित रहते हुए, चुनावी राजनीति से अलग
होकर समाज रचना के नये प्रयोग किए। दोनों ही औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त
भारत की निर्मिति के लिए समग्र क्रांति की अवधारणा को स्वीकार करते हैं।
दोनों का भारत गांवों में है, खेतों में है, खलिहानों में है। दोनों ही भारत
के श्रमिकों को, खेतिहर मजदूरों को, बढ़ई को, लोहार को, मोची को, नाई को भारत
के भाग्य के परिवर्तन के साधक के रूप में देखते हैं। इन सबसे ऊपर वे गांधी और
दीनदयाल की परंपरा को स्वीकृति देते हुए भारत के मूल अधिष्ठान को
आध्यात्मिक मूल्यों में देखते हैं। ये आध्यात्मिक मूल्य इस प्रकार के हैं
जिसमें समग्र क्रांति का एक गीत बरबस याद आता है- 'मंदिरों, मस्जिदों में
नहीं, जहां श्रम करे हाथ, भगवन वहीं'। यह गीत आजादी के आंदोलन से लेकर 1990 तक
भारत के युवाओं का प्रिय गीत रहा है। उन युवाओं का जो अपने को समाज शिल्पी के
रूप में, सांस्कृतिक परिवर्तन के ध्वजवाहक के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे।
लोकनायक और राष्ट्र ऋषि के रूप में, एक विचार देता है, भविष्य के सूत्र देता
है तो दूसरा इसे जमीन पर स्थापित करता है और श्रेष्ठ भारत की इमारत खड़ी
करने के विविध प्रयोग प्रारंभ करता है। स्वाभाविक तौर पर राष्ट्र ऋषि नानाजी
देशमुख के साथ लोकनायक जयप्रकाश नारायण को याद करना स्वतंत्र भारत के इतिहास
के उस विशिष्ट कालखंड को याद करना है जिसमें जयप्रकाश के बिगुल ने तरूणाई को
जगाया और समग्र क्रांति की संभावनाओं को स्वर दिया। 1977 में समग्र क्रांति
का यह अभियान जब राजनीति के खांचे में आकर सत्ता परिवर्तन के रूप में सिमटने
लगा तो नानाजी देशमुख ने केन्द्र सरकार में मंत्री बनने की बजाय उत्तर
प्रदेश के अत्यन्त पिछड़े इलाके गोंडा के एक गांव में समाज शिल्पी बनना
स्वीकार किया। खेतों और खलिहानों से भारत का भविष्य जगेगा, इस आस के साथ
जयप्रभा ग्राम की नींव रखी। खेतों और खलिहानों में युग की आवश्यकता के अनुसार
अनुसंधान और भारतीय समाज के यथार्थ के आधार पर समाज विज्ञान के सिद्धांतों के
गठन के ध्येय से दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय शोध संस्थान स्थापित किया।
गांधी, जयप्रकाश और दीनदयाल इन तीनों को मूर्तिमान रूप में नानाजी देशमुख के
जीवन में देखा जा सकता है। भारत के भाग्यपुरूष को राजधानी और नगरों में देखने
की बजाय गांव के खेतों में, खलिहानों में, लोहार की भाथी में और मोची की रांपी
में देखना आजाद भारत के 50 वर्ष बाद आया एक सुखद आश्चर्य था। जब सम्मिश्र
अर्थव्यवस्था और समाजवादी झुकाव के राज्य के कारण से संवेदना से सम्पूरित
समाज रचना ओझल हो रही थी, ऐसे में बंटे और फटे समाज को एक करके, सबको साथ लेकर
गांव को बढ़ाने, देश को बढ़ाने की योजना समाने रखी। और यह प्रतीति कराई कि
गांव बढ़ेगा तभी भारत बढ़ेगा। गांव बढ़ेगा जब, खेतों में पानी होगा तब। खेतों
में पानी होगा कब, जब नदियों, तालाबों का उचित प्रबंधन होगा। इस प्रकार की
छोटी- छोटी मान्यताओं को राष्ट्र के विकास की बड़ी योजना के रूप में
प्रस्तुत करने का कार्य नानाजी देशमुख ने किया।
समग्र क्रांति के समाज परिवर्तन, शिक्षा परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन और
राजसत्ता परिवर्तन की अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए 1977 में लोकनायक
जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन के अपने साथियों के समक्ष अपनी बात रखी। पर सत्ता
परिवर्तन के बाद जिनके हाथ में सत्ता आयी थी, समग्र क्रांति आंदोलन के ऐसे
साथियों को लगा कि अब बात पूरी हो गयी है। वैसे ही पूरी हो गयी है जैसे नेहरू
और उनके साथियों को लगा था कि आजादी के बाद बात पूरी हो गई है और सत्ता सबकुछ
बदलेगी, नया भारत श्रेष्ठ भारत बनायेगी। 1977 में भी सत्ता में आये लोगों को
यही लगा था। जयप्रकाश नारायण ने तब भी राजनीति से बाहर समाज परिवर्तन के यत्न
निरंतर करने पर जोर दिया था। इसकी इसकी दुहाई दी थी कि समग्र परिवर्तन केवल
सत्ता परिवर्तन तक सीमित नहीं होना चाहिए। पर खराब स्वास्थ्य के कारण फिर
से एक नया आंदोलन शुरू करने की स्थिति में वे नहीं थे। ऐसे में नानाजी देशमुख
संसदीय राजनीति, चुनावी राजनीति से बाहर आए और उन्होंने ग्राम विकास का एक
नया प्रयोग प्रारंभ किया, जिसमें गांधी, विनोबा और दीनदयाल की समग्र दृष्टि
दिखाई देती है। उसमें अंत्योदय के माध्यम से सर्वोदय की संकल्पना चरितार्थ
होने के बीज हैं। अंत्योदय और सर्वोदय न तो राजसत्ता से आयेगा और न ही
व्यापारिक प्रतिष्ठानों से। भारत जगेगा तब, जब गांव जगेगा। भारत जगेगा तब,
जब नौजवान जगेगा। नौजवानों को अपने करियर से आगे बढ़कर 'मेरा जीवन मेरा देश'
इस अवधारणा के साथ समाज शिल्पी के रूप में आगे आना होगा। हजारों नौजवानों ने
अपने वैयक्तिक जीवन के सुख और सपने छोड़कर समाज के साथ कार्य करना स्वीकार
किया। एक ओर भारत नेपाल सीमा पर गोंडा के जयप्रभा गांव और उसके आसपास के
गांवों के विकास का प्रयोग प्रारंभ हुआ तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश और मध्य
प्रदेश के अत्यन्त पिछड़े बुंदेलखंड इलाके में जहां, पानी नहीं, उद्योग
नहीं, कथित आधुनिक सभ्यता को पहुंचने मे भी बहुत देरी हुयी, ऐसे स्थान पर
फिर एकबार ग्रामोदय की कल्पना साकार हुयी। ग्रामोदय ही भारत उदय है इसको न
केवल सिद्धांतकार के रूप में प्रस्तुत किया बल्कि सैकड़ों गांवों में खेती
बदली, पढ़ाई बदली, आपस में अंतरवैयक्तिक संबधों का स्वभाव बदला, भारतीयता,
आध्यात्मिकता, संवेदनापूरित समता की मूल्यदृष्टि को समाज जीवन में चरितार्थ
किया। ऐसी चरितार्थता का स्मरण करना आज जब पूरी दुनिया भारत की ओर देख रही है
आवश्यक प्रतीत होता है। कोरोना जनित सामाजिक अंतराल के इस कठिन कालखंड में
सशक्त समाज की निर्मिति जब एक बड़ी चुनौती है, सबको शिक्षा, सबको
स्वास्थ्य, सबको बढ़ने और पढ़ने के अवसर प्राप्त हों, यह पूरी दुनिया के
समक्ष एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। गांधी और दीनदयाल के सिद्धांतों पर आधारित
जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख का रास्ता हम सबके लिए महत्वपूर्ण और
एकमात्र रास्ता बनकर उभरा है। इस अवसर पर मैं जरूर एक बात कहूंगा कि कोई
सिद्धांत अंतिम रूप से नहीं लिखा गया है। प्रत्येक सिद्धांत अपने काल की
परिस्थितियों से प्रभावित होता है। समाज की गति को सलीके से परिवर्तित करने
में काल की गति का ख्याल रखना ही पड़ता है। न तो यह गांधी और दीनदयाल कालखंड
है और न ही जयप्रकाश और नानाजी का कालखंड। जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख
ने गांधी, विनोबा और दीनदयाल जी के विचारों में आवश्यक संशोधन किए थे। उन
संशोधनों के साथ उनकी व्यवहार्यता की नाप- तौल की थी और उन पर सफल और सार्थक
प्रयोग किए थे। आज जब भारत ने आत्मनिर्भरता का एक नया अभियान प्रारंभ किया
है। स्वाभाविक है कि इस दिशा में परिणामदायी प्रयोग करने वाले इन दोनों
ऋषियों के बताए और दिखाए रास्ते हम सबकी सामूहिक स्मृति का हिस्सा बनते
हैं।